अनुराधा बेनीवाल एक ऐसा नाम जिसने आज़ादी के मायनों को अपने अनुभवों से परखा है। अनुराधा बेनीवाल ने अपनी पुस्तक ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ के ज़रिए कई अहम मुद्दे उठाए है। उन्होंने महिला सशक्तिकरण से लेकर सेक्स और पोर्न को लेकर भारत के रवैये तक ऐसे कई मुद्दों का ज़िक्र अपनी किताब में किया है।
‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ नामक उनकी यह पहली किताब जल्द ही प्रकाशित होने वाली है। यह उनकी घुमक्कड़ी के संस्मरणों की श्रृंखला ‘यायावरी आवारगी’ की भी पहली किताब है। जिसमें उन्होंने अपने घूमे यूरोप के 10 देशों का उल्लेख किया है। इस किताब के ज़रिए उन्होंने यूरोपीय देशों और भारत की मानसिकता, लोगों के नज़रिए की तुलना की है। यह किताब अलग-अलग समाज में रहने वाले लोगों और वहां की संस्कृतियों से पर्दा उठाती है।

अनुराधा ने अंग्रेज़ी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के लिए ब्लॉग्स और कई ट्रेवल वेबसाइट्स के लिए अंग्रेजी में अपने यात्रा-संस्मरण लिखे हैं। अनुराधा एक बिंदास लेखिका होने के साथ-साथ, लंदन में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में शतरंज की कोच भी हैं।

‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ में लेखिका ने एक महिला के नज़रिए से अपनी बात को रखा है। जहां हमारे देश में हम देख सकते, सुनते हैं कि आज भी इस समाज में कई ऐसे हैं, जो लड़कियों को सूरज डूबने के बाद घर से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं देते और यह उनकी आज़ादी का साफ़-तौर पर हरण है।
इसी आज़ादी पर कटाक्ष रखते हुए अनुराधा ने एक महिला के नज़रिए से आज़ादी के सही मायनों को सामने रखा है जहां बेफिक्री से, बिना किसी रोक-टोक के जीवन जिया सके। “अब मुझे देखिए। एक छोटी-सी आज़ादी थी जो मुझे नहीं मिल सकी कभी। वह ऐसी बड़ी बात न थी कोई। उसे मेरा समाज मुझे दे सकता था। उसे मेरे आस-पास के लोग मुझे दे सकते थे। उसे परिचित और अपरिचित दोनों तरह के लोगों से मुझे मिलना चाहिए था— केवल चल सकने की आज़ादी।”

देश कब का आज़ाद हो गया, हम समानता की भी बात करते हैं, लेकिन समानता लोगों की सिर्फ बातों में ही सुनाई देती है, दिखाई थोड़ा कम पड़ती है। आज़ादी की बात हम करते हैं, लेकिन जब बात महिलाओं की आज़ादी की आती है, तो कहीं न कहीं पक्षपात हो ही जाता है।
जब आप महिलाओं को उनके अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी देंगे तो यह उनके विकास के लिए लाभप्रद होगा। “टैम-बेटैम, बेफिक्र-बिंदास, हँसते-सिर उठाए सड़क पर निकल सकने की आज़ादी। कुछ अनहोनी न हो जाए— इसकी चिंता किये बगैर, अकेले कहीं भी चल पड़ने की आज़ादी। घूमते-फिरते थक जाएं तो अकेले पार्क में बैठ कर सुस्ता सकने की आज़ादी। नदी किनारे भटकते हुए हवा के साथ झूम सकने की आज़ादी। जो मेरे मनुष्य होने के अहसास को गरिमा भी देती है और ठोस विश्वसनीयता भी।”

लेखिका ने अपनी यात्रा का ज़िक्र करते हुए यूरोपीय समाज और भारतीय समाज की मानसिकता की तुलना की है। अपनी एक यात्रा के दौरान लेखिका बार में बैठे लोगों से मिलती है। उनसे बात करती हैं। वहां के लोग फुर्सत में दिखते है, अपनी-अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जीते हैं। कोई रोकने, अड़ंगा डालने वाला नहीं। मुफ्त की बिन मांगी नसीहत देने वाला कोई नहीं।

इसी बात की तुलना जब लेखिका अपने भारत में रहे अनुभवों से करती है तो तस्वीर कुछ अलग सी नज़र आती है। “मेरे गांव में कोई बार तो नहीं था, लेकिन गली में सब बूढ़े सुबह-सुबह योंही डेरा जमाते हैं। और आने जाने वालों को आवाज़ लगा कर हाल-चाल पूछते हैं। लेकिन वहां कोई लड़की आस-पास भी नहीं फटकती, साथ बैठ कर हंसी-मज़ाक करना तो दूर की बात है। पापा फिर भी मुझे ले जाया करते, और सबके साथ बिठा कर मुझे अंग्रेजी का अख़बार सुनाने को बोलते। फिर कोई मुश्किल शब्द आता तो मेरे साथ डिक्शनरी में खोजते। वर्ड-मीनिंग की कॉपी बनाते और रोज दस नए शब्द मेरे साथ याद करते।”

जैसा कि हमने आपको बताया ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ उनकी घुमक्कड़ी के संस्मरणों की श्रृंखला ‘यायावरी आवारगी’ की भी पहली किताब है। जिसमें उन्होंने एम्सटर्डम के ‘रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट’ का भी ज़िक्र किया है। जहां सेक्स एजुकेशन को लेकर खुलापन और जागरूकता का माहौल है। अनुराधा ने इस किताब में अपने ‘रेड डिक्ट्रिक्ट ऑफ़ एम्स्टर्डम’ के अनुभवों को साझा किया है।

अनुराधा ने भारत में सेक्स एजुकेशन को लेकर जो हौवा बना रहता है उसका भी ज़िक्र करते हुए यूरोपीय देश से इसकी तुलना की है।“डच स्कूलों में पहली क्लास से बच्चों को सेक्स एजुकेशन दी जाती है। क्या होता है, जब आप जिसे पसंद करते हैं, जब वह आपको गले लगाता है, हग करता है? क्या उन्हें कभी प्यार हुआ है? क्या होता है प्यार? प्यार में होते हैं तो कैसा लगता है? कब किसी को छू लेने का मन करता है? स्कूल में जीवन के इन सब जरुरी सवालों पर स्वस्थ बातचीत होती है। उम्र के साथ शरीर के बदलावों के बारे में बताया जाता है।”

जहां भारत में सेक्स एजुकेशन दी जानी चाहिए या नहीं इस बात की चर्चा रहती है, वहीं यूरोपीय देश इस चर्चा से कई आगे बढ़ चुके है। वहां सेक्स एजुकेशन देना आम है, इसके बारे में अपने बच्चों से बात करना आम है, लेकिन भारत में इस विषय के बारे में बात करना तो दूर, सेक्स का नाम लेना भी कुछ स्वतः महान ज्ञानी लोगों की नज़रों में असभ्य माना जाता है।
जहां भारत में सेक्स क्या है, किस उम्र में किया जाना चाहिए, सावधानियां क्या-क्या बरतनी चाहिए इसके बारे में घर तो छोड़िए, स्कूलों में भी ढंग से बताया नहीं जाता, वहीं यूरोपीय देशों में इसका उलट है। वहां रिलेशनशिप पर खुलकर बात की जाती है। “क्यों खुद को छू लेने का मन करता है? सेक्स क्या होता है, किस उम्र में किया जाना चाहिए? क्या-क्या सावधानियां बरतनी चाहिए? किसी का छुआ आपको अच्छा ना लगे तो क्या करना चाहिए? किस से बात करनी चाहिए? कोई अच्छा लगना बंद हो जाए तो उसको कैसे बताया जाए? एक-दूसरे की ब्रेक-अप के समय कैसे मदद करनी चाहिए। इन सब के बारे में क्लास टीचर आपसे बात करती हैं।”

हमने, आपने कई बार ये सुना है कि किस तरह से वैलेंटाइन्स डे के मौके पर जब कोई जोड़ा पार्क में हाथ में हाथ डाले घूमता नज़र आता है, तो उसे डंडे पड़ते है। यहां ऐसा करना कुछ लोगों की नज़र में अश्लीलता की श्रेणी में आता है, तो फिर सेक्स को लेकर किसी से बात करना तो दूर की बात है।

इस बात पर लेखिका ने तंज कसा हैः “जिस सोसाइटी में हाथ पकड़ना गुनाह हो, वहां लड़के-लड़कियां सेक्स के बारे में कहां सीखेंगे? आपके मां-बाप, अध्यापकों, स्कूल की किताबों ने आपको बताया कभी कि सेक्स क्या होता है और कैसे किया जाना चाहिए? किसी को देखने भर से जो पेट में तितलियां उड़ती हैं, उसके बारे में किसी ने बताया?”
लेखिका ने पोर्न जैसे मुद्दे पर भी अपनी बेबाक राय रखते हुए इसे एजुकेशनल पोर्न के रूप में उपलब्ध कराने के बात रखी है। “मेरा मानना यह है कि समाज को सेक्स नार्मलाइज करना होगा। सेक्स के बारे में बात करनी होगी। एजुकेशनल पोर्न आसानी से उपलब्ध करानी होगी और उसके पीछे का हौव्वा मिटाना होगा। किसी चीज़ को परदा में छुपाने, उस पर बैन लगाने से तो इन्सान स्वाभाविक तौर पर उसकी तरफ आकर्षित होता है।”
